Thursday, May 1, 2014

Pedh --Poetry


  An amalgamation of thoughts from my HRLW experience on April 30. GSS HR team inspired me to plough these on the field.

मेरा घर का आँघण कितना फैला और बडा था
जिसमे मेरे सारे खेल सम्मा जाते थे
और घर के सामने था वो पेड़
कि  जो मुझसे काफी ऊंचा था

लेकिन मुझको इसका यकीन था
जब मैं बड़ा हो जाऊंगा ,इस पेड़ की ऊंचाइयों को छू जाऊंगा
इतने बरसों में
हर गली में खेला हूँ
दुनिया घूम आया हूँ
ज़िन्दगी के तपिश में कहीं ग़ुम हो गया हूँ

बरसों बाद लौटा हूँ , अपने घर के दवार पर
आँघण कुछ छोटा हो गया है
पेड़ मगर पहले से भी कुछ ऊँचा हैं
 

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