इस कविता का प्रेष्ट्चिन्न उन् लोगो में देखता हूँ जो कामघर दूर प्रदेशो से आते हैं और अपनी पहचान बैंगलोर में बनाने में जुट जाते हैं
शाम होते ही ऐसा लगता है
सूरज अब दलने को हैं
सडको पर मंडराती वाहनों की आवाज़
कुछ सजनो को घर विराम्तहा छोड़ने को है
और उसके परे कुछ परिंदे
कतारे बनाए उन्ही जंगलों को चले
जिनके पेड़ो की शाकाओं पे हैं घोसले
यह परिंदे वहीँ लौटकर जाएंगे
और सो जायेंगे
सबका अपना घर होता है
लेकिन इन् काम्घरो का आशियाना
सालो बेनाम होता हैं
हम भी हैरान हैं
इस मकानों के जंगलों में
इनका कही भी टिकाना नहीं
शाम होने को हैं
यह सब अब कहाँ जायेंगे ?
आशियाना ही थो मांगते है आसमान के तले
फिर ऐसा क्यों होता है,जनसाजो
मुफलिसी की नींद सोते हैं ?
--- रूहुल हक
शाम होते ही ऐसा लगता है
सूरज अब दलने को हैं
सडको पर मंडराती वाहनों की आवाज़
कुछ सजनो को घर विराम्तहा छोड़ने को है
और उसके परे कुछ परिंदे
कतारे बनाए उन्ही जंगलों को चले
जिनके पेड़ो की शाकाओं पे हैं घोसले
यह परिंदे वहीँ लौटकर जाएंगे
और सो जायेंगे
सबका अपना घर होता है
लेकिन इन् काम्घरो का आशियाना
सालो बेनाम होता हैं
हम भी हैरान हैं
इस मकानों के जंगलों में
इनका कही भी टिकाना नहीं
शाम होने को हैं
यह सब अब कहाँ जायेंगे ?
आशियाना ही थो मांगते है आसमान के तले
फिर ऐसा क्यों होता है,जनसाजो
मुफलिसी की नींद सोते हैं ?
--- रूहुल हक
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