Tuesday, December 25, 2012

Khanabadosh

इस कविता का प्रेष्ट्चिन्न उन् लोगो में देखता हूँ  जो कामघर  दूर प्रदेशो से आते हैं और अपनी पहचान बैंगलोर में बनाने में जुट जाते हैं




शाम होते ही ऐसा लगता है
सूरज अब दलने को हैं
सडको पर मंडराती वाहनों की आवाज़
कुछ सजनो को घर विराम्तहा छोड़ने को है

और उसके परे कुछ परिंदे
कतारे बनाए उन्ही जंगलों को चले
जिनके पेड़ो की शाकाओं पे हैं घोसले

यह परिंदे वहीँ लौटकर जाएंगे
और सो जायेंगे
सबका अपना घर होता है
लेकिन इन् काम्घरो का आशियाना
सालो बेनाम होता  हैं

हम भी हैरान हैं
इस मकानों के जंगलों  में
इनका कही भी टिकाना नहीं
शाम होने को हैं
यह सब अब कहाँ जायेंगे ?

आशियाना ही थो मांगते है आसमान के तले
फिर ऐसा क्यों होता है,जनसाजो
मुफलिसी की नींद सोते हैं ?


--- रूहुल हक






No comments:

Post a Comment