Saturday, July 6, 2013

Uttarakand devastation metaphor

An enigmatic take on the tragedy at Uttarakand

आज इस शहर में हर शख्स डरा हुआ क्यूँ है
चेहरे क्यों उतरे हुए हैं
गली कुचों में किसलिए चलती है
खामोश,चुप और घबराई हवा

परिचित आँखों पे भी
अजनबियत की ये बारीक सी झिल्ली क्यूँ है
शहर सनाते की ज़ंजीरो में
जकड़ा हुआ  मुलजिम सा नज़र आता है

इक्का दुक्का कोई राहगीर गुज़र जाता है
कॉफ़ की गर्द से
क्यूँ दुन्दला है सारा मंज़र
शिदत से बरसते

शाम  की रोटी कमाने केलिए
घर से निकले तो थे कुछ लोग
मगर मुढ के क्यों देखते हैं घर की तरफ
आज बाज़ार में भी जाना पहचाना सा वो शोर नहीं

सब यूँ चलते हैं की जैसे
ये ज़मीन कांच की है
हर नज़र नज़रो से कतराती है
बात खुलकर नहीं हो पाती है

सांस रोके हुए हर चीज़ नज़र आती है
आज ये शहर
इक सहमे हुए बच्चे की तरह
अपनी परछाई से भी डरता है

हे मानुष देखो
मुझे लगता है
कोई कहर बरसा है शायद !